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________________ (३८) राग-सोरठ। गुरुने पिलाया जी; ज्ञान पियाला ॥ गुरु० ॥ टेक ।। भइ वेखबरी परभावांकी, निजरसमैं मतवाला ।। गुरु०॥ १॥ यो तो छाक जात नहिं छिनहूं, मिटि गये आन जजाला । अदभुत आनंद मगन ध्यानमें, वुधजन हाल सझाला ॥ गुरु०॥२॥ (९५) राग-सोरठ। मति भोगन राचौ जी, भव भवमै दुख देत घना ॥ मतिः ॥ टेक ।। इनके कारन गति गतिमाही, नाहक नाचौ जी । झूठे सुखके काज धरममैं, पाडौ खांची जी ॥ मति० ॥१॥ पूरव कर्म उदय सुख आयां, राचौ माचौ जी। पाप उदय पीड़ा भोगनमैं, क्यौं मन काचौ जी ॥ मतिः॥२॥ सुख अनन्तके धारक तुम ही, पर क्यों जांची जी । वुधजन गुरुका वचन हियामैं, जानौं सांची जी ।। मति० ॥३॥ (९६) थांका गुन गास्यां जी जिनजी राज, थांका दरसनते अघ नास्या॥थांका०॥ टेक ॥ थां सारीखा तीनलोकमैं, और न दूजा भास्या जी ॥ जिनजी० ॥१॥ अनुभव रसतें सींचि सींचिकै, भव आताप वुझास्यां जी । बुधजनको विकलप सब भाग्यौ, अनुक्रमतें शिव पास्यां जी ॥ ...॥२॥
SR No.010379
Book TitleJainpad Sangraha 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1910
Total Pages115
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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