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________________ (२७) (६४)' सम्यग्ज्ञान विना, तेरो जनम अकारथ जाय ॥ सम्यग्ज्ञान० ॥ टेक ॥ अपने सुखमें मगन रहत नहिं, परकी लेत वलाय । सीख सुगुरुकी एक न माने, भव भवमैं दुख पाय ॥ सम्यग्ज्ञान०॥१॥ ज्यों कपि आप काठलीलाकरि, प्रान तजे विललाय। ज्यो निज मुखकरि जालमकरिया, आप मरै उलझाय ॥ सम्यग्ज्ञान० ॥२॥ कठिन कमायो सब धन ज्वारी, छिनमैं देत गमाय । जैसे रतन पायके भोंदू, विलखे आप गमाय ॥ सम्यग्ज्ञान० ॥३॥ देव शास्त्र गुरुको निहचैकरि, मिथ्यामत मति ध्याय । सुरपति वांछाराखत याकी, ऐसी नर परजाय ॥ सम्यग्ज्ञान० राग-झंझोटी। शिवथानी निगानी जिनवानि हो ॥ शिव०॥टेक॥ भववनभ्रमन निवारन-कारन, आपा-पर-पहचानि हो ॥शिव० ॥१॥ कुमति पिशाच मिटावन लायक, स्याद मंत्र मुख आनि हो। गिव०॥२॥ वुधजन मनवचतन: करि निशिदिन, सेवो सुखकी खानि हो ॥ शिव०॥३॥ (:) देखो नया, आज उछाव भया ॥ देखो० ॥ टेक ॥ चंदपुरीमें महासेन घर, चंदकुमार जया ॥ देखो० ॥१॥ मातलखमनासुतको गजपै, लै हरि गिर गया। देखो० ॥२॥ आठ सहस कलसा सिर ढारे, वाजे वजत नया ॥ देखो० ॥३॥ सोपि दियो पुनि मात गोदमै, तांडव
SR No.010379
Book TitleJainpad Sangraha 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1910
Total Pages115
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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