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________________ (२३) (५४) गग-कनड़ी। . भला होगा तरो यों ही, जिनगुन पल न भुलाय हो । भला. ॥ टेक ॥ दुख मैटन सुखदैन सदा ही, नमिक मन वच काय हो ॥ भला० ॥२॥ शक्री चक्री इन्द्र फनिन्द्र सु, वरनन करत थकाय हो। केवलज्ञानी त्रिभुवनस्वामी ताको निशिदिन ध्याय हो । भला० ॥२॥ आवागमन सुरहित निरंजन, परमातम जिनराय हो । बुधजन विधितें पूजि चरन जिन, भव भवमै सुखदाय हो । भला०||३|| राग-कनड़ी। उत्तम नरभव पायक, मति भूले रे रामा । मति भू०॥ टेक ॥ कीट पशुका तन जव पाया, तव तू रह्या निकामा। अब नरदेही पाय सयान, क्यों न भर्ज प्रभुनामा । मति भू० ॥१॥ सुरपति याकी चाह करत एर, कव पाऊं नरजामा। ऐसा रतन पायक भाई, क्यो खोबत विन कामा । मति भू० ॥२॥ धन जोवन तन सुन्दर पाया, मगन भया लखि भामा । काल अचानक झटक खायगा, परे रहेंगे ठामा ॥ मति० ॥३॥ अपने स्वामीके पदपंकज, करो हिये विसरामा । मटि कपट भ्रम अपना वुधजन, ज्यों पाचौ शिवधामा । मति भू०॥४॥ धनि चन्दप्रभदेव, ऐसी सुबुधि उपाई ॥ धनि०॥टेक॥ जगमें कठिन विराग दगा है, सो दरपन लखि तुरत
SR No.010379
Book TitleJainpad Sangraha 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1910
Total Pages115
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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