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________________ (२१) गारी ॥ हो म्हांन० ॥१॥ नगन छवी सुन्दरता जाप, कोटि काम दुति वारी । जन्म जन्म अवलोकौं निशिदिन, बुधजन जा वलिहारी । हो म्हांनै० ॥२॥ राग-गौड़ी ताल आदि तितालो। अरे हाँ रे तें तो सुधरी बहुत विगारी ॥ अरे०॥ टेक॥ ये गति मुक्ति महलकी पौरी, पाय रहत क्यों पिछारी ॥ अरे० ॥१॥ परकौं जानि मानि अपनो पद, तजि ममता दुखकारी। श्रावक कुल भवदधि तट आयो, वूड़त क्यों रे अनारी ॥ अरे० ॥२॥ अवहूं चेत गयो कछु नाही, राखि आपनी वारी। शक्तिसमान त्याग तप करिये, तब वुधजन सिरदारी ॥ अरे० ॥३॥ (५०) राग-काफी कनड़ी। । में देखा आतमरामा । मैं० ॥ टेक ॥ रूप फरस रस गंधते न्यारा, दरस-ज्ञान-गुनधामा । नित्य निरंजन जाकै नाही, क्रोध लोभ मद कामा ॥में० ॥१॥ भूख प्यास सुख दुख नहिं जाकै, नाहीं वन पुर गामा । नहिं साहिब नहिं चाकर भाई, नहीं तात नहिं मामा ॥ मैं० ॥२॥ भूलि अनादिथकी जग भटकत, लै पुद्गलका जामा । वुधजन संगति जिनगुरुकीतें,मैं पाया मुझठामा॥मै॥३॥ __राग-काफी कनडी-ताल-पसतो। अव अघ करत लजाय रे भाई ॥ अव० ॥ टेक ॥ श्रावक घर उत्तम कुल आयो. भंटे श्रीजिनराय ॥ अव०
SR No.010379
Book TitleJainpad Sangraha 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1910
Total Pages115
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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