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________________ (१८) ॥१॥ परिग्रहरहित प्रातिहारजजुत, जगनायकता छाजे हो । दोष विना गुन सकल सुधारस, दिविधुनि मुखतें गाजै हो ।। अहो देखो० ॥२॥ चितमैं चितवत ही छिनमाहीं, जन्म जन्म अघ भाजै हो । वुधजन याकौं कबहुँ न विसरो, अपने हितके काजै हो ॥ अहो० ॥३॥रा राग-सारंग लहरि। श्रीजी तारनहारा थे तो, मोनें प्यारा लागोराज॥श्री० ॥ टेक ॥ वार सभा विच गंधकुटीमैं, राज रहे महाराज ॥ श्री०॥१॥ अनत कालका भरम मिटत है, सुनतहिआप अवाज ॥श्री० ॥२॥ बुधजन दास रावरो विनवै, . थासू सुधरै काज ॥ श्री० ॥ ३ ॥ (४१) राग-पूरवी एकताला। तनके मवासी हो, अयाना ॥तनके० ॥टेक ॥ चहुँगति फिरत अनंतकालतें, अपने सदनकी सुधि भौराना ॥तनके० ॥१॥ तन जड़ फरस-गंध-रसरूपी, तू तो दरसनज्ञाननिधाना, तनसौं ममत मिथ्यात मेटिकै, वुधजन अपने शिवपुर जाना ॥ तनके० ॥२॥ राग-पूरवी एकतालो। नैनशान्त छविदेखि छके दोऊ ।। नैन० ॥ टेक ॥ अव अद्भुत दुति नहिं विसराऊं, बुरा भला जग कोटि कहो को ॥ नैन० ॥१॥बड़भागन यह अवसर पाया, सुनियो जी
SR No.010379
Book TitleJainpad Sangraha 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1910
Total Pages115
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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