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________________ ( १४ ) धर्म दयाजुत, परिग्रह विन गुरु तास । तत्त्वारथरुचि है जाके घट, बुधजन तिनका दास ॥ धनि० ॥ ४ ॥ (-३० ) राग - सारंग | धाई भई हो, तुम निरखत जिनराय, बधाई भई हो ॥ टेक ॥ पातक गये भये सव मंगल, भैटत चरनकमल जिनराई ॥ वधाई ० ॥ १ ॥ मिटे मिथ्यात भरमके बादर, प्रगटत आतम रवि अरुनाई । दुरबुध चोर भजे जिय जागे, करन लगे जिनधर्म कमाई || वधाई० ॥ २ ॥ हगसरोज फूले दरसनतैं, तुम करुना कीनी सुखदाई । भापि अनुव्रत महाविरतको, बुधजनको शिवराह बताई ॥ बधाई० ॥ ३ ॥ ( · ३१ ) { राग - सारंगकी मांझ ताल दीपचन्दी | म्हांरी सुणिज्यो परम दयालु, तुमसौं अरज करूं म्हांरी० ॥ टेक ॥ आन उपाव नहीं या जगमैं, जग तारक जिनराज, तेरे पाय परूं ॥ म्हांरी० ॥ १ ॥ साथ अनादि लागि विधि मेरी, करत रहत बेहाल, इनकौं कौलौं भरूं ॥ म्हांरी० ॥ २ ॥ करि करुना करमनको काटो, जनम मरन दुखदाय, इनतें बहुत डरूं ॥ म्हांरी० ॥ ३ ॥ चरन सरन तुम पाय अनूपम, वुधजन मांगत येह - गति गति नाहिं फिरूं ॥ म्हांरी० ॥ ४ ॥ ( ३२ ) बधाई चन्दपुरी मैं आज || वधाई ० ॥ टेक ॥ महा
SR No.010379
Book TitleJainpad Sangraha 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1910
Total Pages115
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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