SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ८ ) चावै है। गुरु०॥१॥पर सुभावको मोस्या चाहै, अपना ' उसा वनावै है । सो तो कवहूं हुवा न होसी, नाहक रोग लगावै है । गुरु० ॥२॥ खोटी खरी जस करी कुमाई, तैसी तेरै आवै है । चिन्ता आगि उठाय हियामैं, नाहक जान जलावै है। गुरु०॥३॥ पर अपनावै सो दुख पावै, वुधजन ऐसे गाव है। परको त्यागि आप थिर तिष्टै, सो अविचल सुख पावै है ।। गुरु० ॥४॥ राग-आसावरी । अरज झारी मानो जी, याही मारी मानो, भवदधि. हो तारना झारा जी ॥ अरज० ॥ टेक ॥ पतितउधारक पतित पुकार, अपनो विरद पिछानो ॥ अरज० ॥१॥ मोह मगर मछ दुख दावानल, जनममरन जल जानो । गति गति भ्रमन भंवरमैं डूबंत, हाथ पकरि ऊंचो आनो ॥ अरज० ॥२॥ जगमैं आन देव बहु हेरे, मेरा दुख नहिं भानो । वुधजनकी करुना ल्यो साहिव, दीजे अविचल थानो ॥ अरज० ॥३॥ (१८) ___ राग-आसावरी जोगिया ताल धीमो तेतालो। तू काई चालै लाग्यो रे लोभीड़ा, आयो छै बुढ़ापोतू. ॥ टेक ॥ धंधामाहीं अंधा है कै, क्यों खोवै छै आपो रे ॥ तू० ॥१॥ हिमत घटी थारी सुमत मिटी छै, भाजि गयो तरुणापो। जम ले जासी सब रह जासी, सॅग जासी , १ सरीसा।
SR No.010379
Book TitleJainpad Sangraha 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1910
Total Pages115
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy