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________________ ( ९७ ) जिया म्हारा । ज्यौं निकसै भव जालसौं, लाल जिया ॥ देख्यौ० ॥ ५ ॥ ( २३४ ) राग आसावरी । श्रीजी म्हांने जाणौ छो तौ महांकी सुधि लीज्यो र्ज ॥ श्री० ॥ टेक ॥ म्हे भूल्या महानैं विधि बांध्या, थे छुटकारा दीज्यो जी ॥ श्री० ॥ १ ॥ अव म्हे शरण थांके आया, थे निरवाह करीज्यो जी । जोलौं रहै वुधजन जगमाहीं, तोलौं दर्शन दीज्यो जी ॥ श्री० ॥ २ ॥ ( २३५ ) राग- धनासरी । मेरा सपरदेसी (?) भूल न जाना वे, सुनि लेना वे ॥ मरा० ॥ टेक ॥ दृष्टा ज्ञाता नित्य निरंजन, तू है सिद्ध समानां ॥ मेरा० ॥ १ ॥ मोहित होय अनादि कालका, अजथा जथा पहचाना। राग दोप कीना परसेती, यातें है मरजाना ॥ मेरा० ॥ २ ॥ तेरी भूलि मैटि तोही मैं, करि तेरा सरधाना | बुधजन थिर व्है त्यागि अथिरता, पावोग शिवथाना ॥ मेरा० ॥ ३ ॥ ( २३६).-. तैं ना जानी तोहि उपयोग हि देत दिखानी ॥ तें ॥ टेक ॥ ज्यौं फूलनमैं वास वसत है, त्यों तू तनमैं ज्ञानं ॥ तैं० ॥ १ ॥ ये तेरे कवहूं मति मानै, क्रोध लोभ छ मानी ॥ तैं० ॥ २ ॥ जैसैं राजत सिद्ध मुकति मैं, 7
SR No.010379
Book TitleJainpad Sangraha 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1910
Total Pages115
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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