SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 107
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ९३ ) मार दई, लाख जनों जी ॥ हो० ॥१॥ यावर विकलत्रय, पंचेन्द्री बनौ जी । गीत घाम भूख प्यास, त्रास घनौ जी । हो० ॥२॥ सागरलौं सुरगतिम, सुक्त सुनो जी। भोगनमें लीन रह्यो, अघ न गनी जी॥ हो० ॥३॥नर. भवमै आय लह्यो, दासपनो जी । वुधजनपै दया धारि, कर्म हनौ जी॥हो ॥४॥ (२२६) मानौ मन भंवरसुजान हो राज, नरभव चौ थिर ना रहे होराज॥मानौ० ॥टेक ॥ काल करन कछु नाहिं विचारों, कर ल्यो कारज आज । मानौ० ॥१॥ नव जीवन सुंदर तन संपति, दारा सुतको समाज । थिति पूरी करि करि नग जै है, परेई रहेंगे इलाज । मानौ० ॥२॥ निज हित तजि विषयन हित राची, औसर खोत अकाज । अनुचित काज करत हो वुधजन, आवत क्यों नहिं लाज ॥ मानौ० ॥३॥ (२२७). राग-विहाग। सुख पावोगे यासाँ, मेरा सुघर चेतन गुन गाय रे ॥ सुखः ॥ टेक ॥ गायां विना विगार करत है, तुम विन कहाँ कई कासों। चेतन० ॥२॥ जिन गाया तिन ही शिव पाया, सीख देत हूं तासौं । चेतन० ॥शायातें सास सास वुधजन जपि, गयों न आवे सासौं। चेतन० ॥३॥ १ खासखासने-हरएक संस। २ गई हुई चास फिर नहीं आती है।
SR No.010379
Book TitleJainpad Sangraha 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1910
Total Pages115
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy