SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 48
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४० जैन पदसंग्रहशांति कुंथु अर तीनों जिनका, चारु कल्याणकथल रे ॥ अरे० ॥ ३ ॥ जा दरसत परसत सुख उपजत, जाहिं सकल अघ गल रे ।। अरे० ॥४॥ देश दिशन्तरके जन आवे, गावें जिन गुन रल रे ॥ अरे० ॥ ५ ॥ तीरथ गमन सहामी मेला, एक पंथ दै फल रे ॥ अरे० ॥ ६ ॥ कायाके संग काल फिरै है, तन छायाके 'छल रे ॥ अरे० ॥ ७॥ माया मोह जाल बंधनसौं, भूधर वेगि निकल रे ॥ अरे० ॥ ८ ॥ ५८. राग विहाग । जगत जन जूवा हारि चले ।। टेक ॥ काम कुटिल सँग बाजी माँड़ी, उन करि कपट छले ॥ जगत. ॥ १ ॥ चार कषायमयी जहँ चौपरि, पांसे जोग रले । इत सरवस उत कामिनी कौंडी, इह विधि झटक चले । जगत० ॥ २॥ कूर खिलार विचार न कीन्हों, है हैं ख्वार भले । विनां विवेक मनोरथ काके, भूधर सफल । जगत० ॥३॥
SR No.010377
Book TitleJainpad Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages77
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy