SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीयभाग। ३३ टेक ॥ शिशिरं मिथ्यात गयो आई अब, कालकी लब्धि वसन्त ॥ होरी० ॥१॥ पिय सँग खेलनको हम सखियो ! तरसी काल अनन्त । भांग फिरे अब फाग रचानों, आयो विरहको अन्त ॥ होरी०॥२॥ सरधा गागरमें रुचिरूपी, केसर घोरि तुरन्त । आनंद नीर उमग पिचकारी, छोड़ो नीकी भन्त ॥ होरी०॥३॥आज वियोग कुमति सौतनिकै, मेरे हरप महन्त । भूधर धनि यह दिन दुर्लभ अति, सुमति सखी विहसन्तः ॥ होरी०॥४॥ ४७. राग भैरौं। *पारस-पद-नख-प्रकाश, अंरुन वरन ऐसो ॥ टेक ॥ मानों तप कुंजरके, सीसको सिंदूर पूर, राग दोष काननकों, दावानल जैसो ॥ पारस० ॥१॥ वोधमई' प्रातकाल, ताको रवि उदय लाल, मोक्षवधू-कुचप्रलेप, कुंकुमाम तैसो ॥ १ ठडी ऋतु । * यह पद सिन्दूरप्रकरके पहले श्लोक (सिन्दूरप्रकरस्तप करिशिर क्रोडे कषायाटवी) की छाया है । २ लाल । ३ हाथी । ४ वनको। ३ भाग ३
SR No.010377
Book TitleJainpad Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages77
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy