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________________ तृतीयभाग। ॥४३ मेरे चारों शरन सहाई ।। टेक ।। जैसें जलधि परत वायसकों वोहिथ एक उपाई ।। मेरे ॥१॥ प्रथम झरन, अरहन्त चरनकी, सुरनर पूजत पाई । दुतिय शरन श्रीसिद्धनकेरी, लोक-तिलक-पुर-राई ।। मेरे० ॥ २ ॥ तीजै सरन सर्व साधुनिकी, नगन दिगम्बर-कोई । चौथै धर्म अहिंसारूपी, सुरगमुकतिसुखदाई । मेरे० ॥३॥ दुरगति परत सुजन परिजनपै, जीव न राख्यो जाई । भूधर सत्य भरोसो इनको, ये ही लेहिं बचाई। मेरे० ॥ ४ ॥ ___४४. राग सारंग। जपि माला जिनवर नामकी ॥ टेक ॥ भजन सुधारससों नहिं धोई, सो रसना किस कामकी। जपि० ॥१॥ सुमरन सार और मिथ्या, पटतर धूवा नामकी । विपम कमान समान विपय सुख, काय कोयली चामकी ॥ जपि० ॥२॥ जैसे चित्रनागके मांथे, थिर मूरति चित्रामकी । १ कोएको । २ जहाज । ३ येली।
SR No.010377
Book TitleJainpad Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages77
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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