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________________ तृतीयभाग। अन्तर॥२॥ बाहिर भेष क्रिया उर शुचिसों कीयें पार उतरना रे । नाहीं है सब लोक रं-- जना, ऐसे वेदन वरना रे ॥ अन्तर० ॥३॥ कामादिक मनसौं मन मैला, भजन किये क्या तिरना रे । भूधर नीलवसनपर कैसे, केसररंग उछरना रे ॥ अन्तर० ॥ ४ ॥ ३७. राग सोरठ। (वीरा! थारी वान बुरी परी रे, वरज्यो मानत नाहि ॥ टेक ॥ विषय विनोद महा बुरे रे, दुख. दाता सरवंग । तू हटसौं ऐसें रमै रे, दीवे पड़त पतंग ॥ वीरा ॥१॥ ये सुख हैं दिन दोयके रे, फिर दुखकी सन्तान । करै कुहाड़ी लेइकै रे, मति मारै पैग जानि ॥ वीरा ॥२॥ तनक न संकट सहि सके रे! छिनमैं होय अधीर । नरक विपति बहु दोहली रे, कैसे भरि है.वीर ॥ वीरा० ॥३॥ भव सुपना हो जायगा रे, करनी रहेगी निदान । भूधर, फिर पछतायगा रे, अब ही समुझि अजान ॥ वीरा ॥४॥ १ काले कपड़ेपर । २ दीपकमें। ३ अपने हाथसे । ४ अपने पैरपर । -
SR No.010377
Book TitleJainpad Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages77
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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