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________________ तृतीयभाग। अव०॥६॥ गुरु उपगारी गारुड़ी, दुख देख निवारै । हित उपदेश सुमंत्रसों, पढ़ि जहर उतारै ॥ अव० ॥ ७ ॥ गुरु माता गुरु ही पिता, गुरु सजन भाई । भूधर या संसारमें, गुरु शरनसहाई ॥ अव० ॥८॥ ३४. गग बंगाला। जंगमें श्रद्धानी जीव जीवनमुकत हंगे | टेक ॥ देव गुरु सांचे माने, सांचो धर्म हिये आने, ग्रंथ ते ही सांचे जानें, जे जिनउँकतं . हँगे ॥ जगमैं० ॥१॥ जीवनकी दया पालैं, झूठ तजि चोरी टालें, परनारी भालें नैन जिनके लुकत हैंगे ॥ जगमें० ॥ २ ॥ जीयमै सन्तोष घार हिये समता विचारें, आगँ को न बंध पारें, पाईसौं चुकत हैंगे ।। जगमें० ॥ ३॥ वाहिज क्रिया अराधे, अन्तर सरूप सा., भूधर ते मुक्त लाईं, कहूं न रुकत हँगे || जगमें० ॥ ४ ॥ १ जहर उतारनेवाले। २ इस पदकी चारों टेकें निकाल डालनेसे एक घनाक्षरी ( ३२ वर्ण) कवित्त बन जाता है। उक्त, प्रणीत, कहे हए । १ टेबने । ५ छिपते हैं, लज्जित होते है।
SR No.010377
Book TitleJainpad Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages77
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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