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________________ २३ तृतीयभाग । कंचन घेरे. छीरसागर भरे नीर निरमल वरन । सहस अर आठ गिन एक ही वार जिन, सीस सुरईशके करन लागे ढरन ॥ 'आज० ॥ २ ॥ नचत सुरसुन्दरीं रहस रससों भरीं, गीत गावैं अरी दैहिं ताली करन | देव दुंदुभि वजे वीन वंसी सजे, एकसी परत आनंद घनकी भरन ॥ आज० ॥ ३ ॥ इन्द्र हर्पित हिये नेत्र अंजुल किये, तृपति होत न पिये रूपअम्रतझरन । दास भूघर भनें सुदिन देखें वनैं, कहि थर्के लोक लख जीभ न सकै वरन || आज० ॥ ४॥ ३२ ऐसी समझ के सिर धूल ॥ ऐसी० ॥ टेक ॥ धरम उपजन हेत हिंसा, आचरें अघमूल || ऐसी० ॥ १ ॥ छके मत-मदन-पान पीके, रहे मनमें फूल | आम चाखन चहें भोंदू, वोय पेड़ बँबूल || ऐसी० ॥ २ ॥ देव रागी लालची गुरु, सेय सुखहित भूल । धर्म नगकी परख नाहीं, भ्रम हिंडोले झूल || ऐसी० || ३ || लाभकारन १ घटे -क्ला । २ रनकी । •
SR No.010377
Book TitleJainpad Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages77
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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