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________________ २० जैन पदसंग्रहसुकच्छकुमारी । सोई पंथ गहो पिय पाछै, हो संजमधारी ॥ अरज० ॥२॥ तुम विन एक पलक जो प्रीतम, जाय पहर सौ भारी । कैसे निशदिन भरौं नेमिजी!, तुम तो ममता डारी। याको ज्वाब देहु निरमोही !; तुम जीते मैं हारी ॥ अरज० ॥३॥ देखो रैनवियोगिनि चकई, सो विलखै निशि सारी । आश बाँधि अपनो जिय राखे, प्रात मिलैं पिय प्यारी । मैं निराश निरधारिनि कैसैं, जीवों अती दुखारी।। अरज०॥४॥ इह विधि विरह नदीमें व्याकुल, उग्रसेनकी बारी । धनि धनि समुद्रविजयके नंदन, बूड़त पार उतारी । करहु दयाल दया ऐसी ही, भूधर शरन तुम्हारी ॥ अरज०॥५॥ २९. राग धमाल सारंग।। · हूं तो कहा करूं कित जाउं, सखी अब कासौं पीर कहूं री ! ॥टेक॥ सुमति सती सखियनिके आगैं, पियके दुख परकासै । चिदानन्दवल्लभकी वनिता, विरह वचन मुख भासै ॥ हूं तो० ॥१॥ कंत विना कितने दिन बीते, कौंलौं
SR No.010377
Book TitleJainpad Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages77
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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