SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नृनीयभाग। ॥ २ ॥ इस विरिया में धर्म-कल्प-तरु, सींचत स्याने लोय.। तू विष बोवन लागत तो सम, और अभागा कोय ॥ अज्ञानी० ॥ ३ ॥ जे जगमें दुखदायक वेरस, इसहीके फल सोय । यो मन भूधर जानिके भाई, फिर क्यों भोंदू होय ॥ अज्ञानी० ॥ ४ ॥ ६. राग सोरट । मेरे मन सूवा, जिनपद पीजरे वसि, यार लाव न वार रे ॥ टेक ॥ संसारसेंबलवृच्छ सेवत, गयो काल अपार रे । विषय फल तिस तोड़ि चाखे, कहा देख्यो सार रे ॥ मेरे मन० ॥१॥ तू क्यों निचिन्तो सदा तोकौं, तकत काल मॅजार रे । दावै अचानक आन तव तुझे, कौन लेय उवार रे ॥ मेरे मन० ॥२॥ तू फँस्यो कर्म कुफन्द भाई, छुटै कौन प्रकार रे । तैं मोह-पंछीवधक विद्या, लखी नाहिं गँवार रे । मेरे मन० ॥ ॥३॥ है अजों एक उपाय भूधर, छुटै जो १ बेला-समय । २ विवेची । ३ लोग । ४ निश्चिन्त । ५ बिल्ली ।
SR No.010377
Book TitleJainpad Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages77
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy