SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 8
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनपदसंग्रहऊंच ऊंच दशा धारि, चित्त प्रमादको विडारि, ऊंचली दशात मति, गिरो अघो घरनी ॥४॥ भागचन्द या प्रकार, जीच लहै सुग्न अपार, थाके निरधार स्याद, वादकी उचरनी। परनति ॥॥ जीव ! तृ भ्रमत सदीव अकेला । सँग साथी कोई नाहि तेरा ॥टेका। अपना सुखदुख आप हि भुगते, होत कुटुंब न भेला । स्वार्थ भय सब विछुरि जात हैं: विघट जातज्यों मेला ॥ १॥ रक्षक कोइन पूरन व्है जय, आयु अंतकी बेला । फुटत पारि बँधत नहिं जसे, दुद्धर जलको ठेला ॥२॥ तन धन जीवन विनशि जात ज्यो, इन्द्रजालका बेला । भागचन्द इमि लग्व करि भाई, हो सतगुरुका चेला ॥ जीव तृ भ्रमत० ॥ ३॥ आकुलरहित होय इमि निशदिन, कौजे तत्त्वविचारा हो । को मैं कहा रूप है मेरा, पर हैं कौन प्रकारा हो ॥टेक॥१॥ को भव-कारण बंध कहा को, आस्रवरोकनहारा हो । खिपत कर्मबंधन काहसों, थानक कौन हमारा हो ॥२॥ इमि अभ्यास किये पावत है, परमानंद अपारा हो।भागचंद यह सार जान करि, कीजे वारंवारा हो॥आकुलरहित होय० ॥३॥
SR No.010376
Book TitleJainpad Sangraha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1910
Total Pages53
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy