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________________ ४७ द्वितीय भाग। मात्रमें विघट जात है, जिमि वुद जलका | प्रेम ॥ २॥ भागचन्द क्या सार जानके, तया सँग ललका । तातै चित अनुभव कर जो तृ, इच्छुक शिवफलका | प्रेम० ॥ सहज अवाध समाघ धाम तहाँ, चेतन सुमति ग्वेलें होरी | टेक | निजगुनचंदनमिश्रित सुरभित, निर्मल कुंकुम रस घोरी । समला पिचकारी अति प्यारी, भर जु चलावत चहुँओरी सहज० ॥१॥ शुभ संवर सुअरि आडंबर, लावत भरभर कर जोरी । उड़त गुलाल निर्जरा निर्भर, दुखदायक भव पिति टोरी ॥ सहज० ॥२॥ परमानंद मृदंगादिक धुनि, विमल विरागभावघोरी । भागचंद दृग-ज्ञान -चरनमय, परिनन अनुभव रँग बोरी सहज० ।।३।। सत्ता रंगभूमिमें, नटत ब्रह्मा नटराय ॥ टेक ॥ रत्नत्रय आभूपणमांडित, शोभा अगम अयाय । सहज सखा निशंकादिक गुन, अतुल समाज बदाय ॥ सत्ता रंग ॥१॥ समता वीन मधुररस बोले, ध्यान मृदंग बजाय।नदतनिर्जरा नाद अनूपम, नूपुर संवरल्याय|| सत्ता रंग ॥२॥ लय निज-रूप-मगनताल्यावत, नृत्य सुज्ञान कराय । समरस गीतालापन पुनि जो, दुर्लभ
SR No.010376
Book TitleJainpad Sangraha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1910
Total Pages53
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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