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________________ ऑनमः मिया जैनपदसंग्रह द्वितीयभाग। अर्थान् पंडिनवर्य भागचन्द्रजीकृत पदोका मंग्रह । राग मरी। सन्त निरन्तर चिन्तत ऐसें, आतमरूप अयाधिन ज्ञानी ॥ टेक ॥ रागादिक नो देहाधित है. इनले हान न मेरी हानी । दहन दहत ज्या दहन न नगन गगन दहन ताकी विधि ठानी।।? || चरणादिक विकार । पुदगलके, इनमें नहिं चैतन्य निशानी । यद्यपि एक क्षेत्रअवगाही, नापि लक्षण भिन्न पिडानी ॥ २॥ मैं सर्वांगपूर्ण ज्ञायक रस, लवण विलयत लीला ठानी। मिली निराकुल स्वाद नं यावत, तावत परपरनति हित मानी ॥३॥ भागचन्द निरदन्द निरामय, मृरति निश्चय सिडसमानी । नित असलंक अबंक शंक विन, निर्मल पंक विना जिमि पानी मन्न । निरन्तर चि॥४॥ धन धन जैनी माधु अवाधिन, नत्त्वज्ञानविलानी हो ॥ टेक ॥ दर्शन-पोषमई निजमरति, जिनकों
SR No.010376
Book TitleJainpad Sangraha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1910
Total Pages53
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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