SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . . जैनपदसंग्रह नारूढ़ विराजत हैं जहां, वीतराग प्रतिबिम्ब उदारा ॥ जैन० ॥४॥ भागचन्द तहां चलिये भाई, तजिकै गृहकारज अघ भारा ॥ जैन०॥५॥ ७५ राग दीपचन्दी। - जिनमन्दिर चल भाई, शिव-तिय-व्याह सुमंगलग्रहवत ॥टेका। जन धर्मिष्ट समाज सकल तहाँ, तिष्टत मोद बढाई । अमल धर्मआभूषनमंडित, एकसी एक सवाई ॥जिन०॥१॥ धर्म ध्यान निहूम हुताशन कुंड प्रचंड वनाई । होमत कर्महविष्य सुपंडित, श्रुत धुनि मंत्र पढाई । जिन ॥२॥ मनिमय तोरनादि जुत शोभत, केतुमाल लहकाई । जिनगुन पढ़न मधुर सुर छावत, बुधजन गीत सुहाई ॥ जिन० ॥३॥ चीन मृदंग रंगजुत वाजत, शोभा वरनि न जाई। भागचंद पर लख हरषत मन, दूलह श्रीजिनराई ॥ जिनमंदिर० ॥ ४॥ . . - भवषनमें, नहीं भूलिये भाई । कर निज थलकी याद ॥ टेक ॥ नर परजाय पाय अति सुंदर, त्यागहु सकल प्रमाद । श्रीजिनधर्म सेय शिव पावत, आतम जासु प्रसाद ।। भव ॥१॥अबके चूकत ठीक न ‘पड़सी पासी अधिक विषाद । सहसी नरक वेदना
SR No.010376
Book TitleJainpad Sangraha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1910
Total Pages53
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy