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________________ जैनपदसंग्रह राग दीपचन्दी। कीजिये कृपा मोह दीजिये स्वपद, मैं तो तेरो ही शरन लीनों हे नाथ जी ॥ टेक ॥ दूर करो यह मोह शत्रुको, फिरत सदा जी मेरे साथ जी ॥ कीजिये ॥ १॥ तुमरे वचन कर्मगद-मोचन, संजीवन औषधी क्वाथजी कीजि ॥२॥तुमरे चरन कमल बुधध्यावत. नावत हैं पुनि निजमाथजी।कीजि० ॥३॥ भागचंद मैं दास तिहारो, ठाडो जो जुगल हाथ जी॥ कीजिए राग दीपचन्दी। · निज कारज काहे न सारै रे, भूले प्रानी ॥ टेक ॥ परिग्रह भारथकी कहा नाहीं, आरत होत तिहारे रे ॥ निज० ॥१॥ रोगी नर तेरी वपुको कहा, तिस दिन नाहीं जारै रे ॥ निज का० ॥२॥ कूरकृतांत सिंह कहा जगमें,जीवनकोन पछारे रे । निज का ॥३॥ करनविषय विषभोजनवत कहा, अंत विसरता न धारे रे ॥ निज०॥४॥ भागचन्द भवअंधकूपमें. धर्म रतन काहे डारै रे॥ निज का० ॥५॥ . हरी तेरी मति नर कौनें हरी । तजि चिन्तामन
SR No.010376
Book TitleJainpad Sangraha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1910
Total Pages53
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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