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________________ द्वितीयभाग। ॥३॥ अब निजमें निज जान नियत तहां, निज परिनाम समोये । यह शिवमारग समरससागर, भागचन्द हित तो ये । जे दिन० ॥४॥ राग दादग। धनि ते प्रानि, जिनके तत्वारथ अन्द्वान | टेक ।। रहित सप्त भय तत्वारथम, चित्त न संशय आन । कर्म कर्ममलकी नहिं इच्छा, परमें धरत न ग्लानि ।। धनि०॥ ? || सकल भाव में मुष्टितजि, करत सास्यरसपान | आतम धर्म बहाचा, परदोष न उचरै बान ॥ धनि० ॥२॥ निज स्वभाव वा जैनधर्ममें. निजपरथिरता दान, रत्नत्रय महिमा प्रगटावै, प्रीति स्वरूप महान ॥ धनि० ॥३॥ ये वसु अंगसहित निर्मल यह, समकित निज गुन जान । भागचन्द शिवमहल चढ़नको, अचल प्रथम सोपान । धनि० ॥४॥ राग नोड़।। . ज्ञानी जीवनके भय होय, नया परकार ॥ टेक ॥ इह भव परभव अन्य न मेरो, ज्ञानलोक मम सार । में वेदक इक ज्ञानभावको, नहिं परवेदनहार ज्ञानी ॥१॥ निज सुभाषको नाश न तातै चहिये नाहिं
SR No.010376
Book TitleJainpad Sangraha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1910
Total Pages53
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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