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________________ २४ जैनपदसंग्रह निजगुन छीजे ॥ प्रभू० ॥२॥ भागचन्द तुम शरन लियो है, अव निश्चलपद दीजे ॥ प्रभू० ॥३॥ ४५ राग कलिंगड़ा। ऐसे साधु सुगुरु कब मिल हैं । टंक ॥ आप तरै अरु परको तारें, निष्प्रेही निरमल हैं। ऐसे० ॥ १॥ तिलतुषमात्र संग नहिं जाकै, ज्ञान-ध्यानगुण वल हैं ।। ऐसे साधू० ॥ २॥ शान्तदिगम्बर मुद्रा जिनकी मन्दिरतुल्य अचल हैं ॥ ऐसे० ॥॥ भागचन्द तिनको नित चाहै, ज्यों कमलनिको अल है ॥ ऐसे० ॥४॥ राग कहरवा कलिंगड़ा। केवल जोतिसुजागी जी, जब श्रीजिनवरके टेका। लोकालोक विलोकत जैसे, हस्तासल वड़भागी जी ॥ के० ॥१॥ हार-चूड़ामनिशिखा सहज ही, मन भूमिने लागी जी । केवल० ॥२॥ समवसरन रचना सुर कीन्हीं, देखत भ्रम जन त्यागी जी॥ केवल०॥॥ भक्तिसहित अरचा तय कीन्हीं, परम धरम अनुरागी जी केवल० ॥४॥ दिव्यध्वनि सुनि सभा दुवादश, आनदरसमें पागी जी॥ केवल० ॥५॥ भागचंद प्रभुभक्ति चहत है, और कछु नहिं मांगी जी॥ केवल ॥६॥
SR No.010376
Book TitleJainpad Sangraha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1910
Total Pages53
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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