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________________ जनपदसंग्रह · राग विलावल ।। सुमर सदा मन आतमराम, सुमर सदा मन आतमराम ।। टेक ॥ स्वजन कुटुंवी जन तू पोषै, तिनको होय सदैव गुलाम।सोतो हैं स्वारथके साथी, अंतकाल नहिं आवत काम ॥ समर सदा॥१॥जिमि मरी. चिकामें मृग भटके, परत सो जब ग्रीषम अति धाम तैसे तू भवमाही भटकै, धरत न इक छिन विसराम ।। सुमर ॥२॥ करत न ग्लानि अव भोगनमें, धरत नवीतराग परिनाम । फिर किमि नरकमाहि दुख सहसी, जहाँ सुख लेशन आठौँ जाम ॥३॥ तातै 'आकुलता अब तजिकै, थिर व्है बैठो अपने धाम । भागचंद वसि ज्ञान नगरमें, तजि रागादिक उंग सब ग्राम ।। सुमर०॥४॥ राग सारंग। .. श्रीमुनि राजत समता संग। कायोत्सर्ग:समायत 'अंग टेक। करतें नहिं कछु कारज तातें, आलम्बित 'भुज कीन अभंग । गमन काज कछु हू नहिं तातें, गति तजि छाके निज रसरंग ॥, श्रीमुनि ॥१॥ लोचन लखिवौ कछु.नाहीं, तातै नासा हग अचलंग सुनिवे जोग रह्यो कछु नाही; तातै प्राप्त इकंत सुचंग
SR No.010376
Book TitleJainpad Sangraha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1910
Total Pages53
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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