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________________ द्वितीयमाग। हाने | अनि०॥ १॥ शुब उपयोग कारननमें जो, रागकवाय मंद उदयान । सो विशुद्ध नसु फल इंद्रादिक, विभव समाज मकल परमानं ॥ अनि ॥२॥ परकारन मोहादिकतै च्युन, दरमन ज्ञान नरन रम पाने । सो है शुद्र भाव नमु फलन, पहुँचत परमानंद ठिकान ॥ अति संलं ॥३॥ इनमें जुगलबंधक कारन परद्रव्याश्रित इंचप्रमाने । 'भागनंद' स्वममय निज हिन सन्त्रि, तामै रम रहिय भ्रम हाने ।अति ॥ उग्रसन गृह व्याहन आय, समदविजय लाला यं । उग्रसेन टिका अशरन पशु आवंदन लम्विक कम्ना भाव उपाय । जगन विभूति भृति सम नजिक. अधिक विराग पढ़ाये | उग्रनन ? ॥ ॥ मुद्रा नगन धारि तंद्रा विन, आत्मनमचि लाये । उजयनागिरि शिग्वरीपरि चढ़ि, शुचि धानकर्म धाय ।।उग्रसेनगाना पंचमुष्टि कर लंच मुंच रज, मिदनको शिर नाय। धवल ध्यान पायक ज्वालात. करम कलंक जलाये । उन० ॥ ३ ! वस्तु समस्त हस्तरेमावन. जुगपत ही दरसाये । निरक्शेप विध्यस्त कर्मकर. शिवपुरकाल सिधाये ॥ उग्रसन० ॥ ४ ॥ अन्यायाध अगाध योघमयतत्रानंद मुहाये। जगभूपन दृपनविन सामी, भागचंद गुन गाये । उग्रसेन० ॥५॥
SR No.010376
Book TitleJainpad Sangraha 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1910
Total Pages53
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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