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________________ द्वितीयभाग. २१ लोचनरहित मनुपके करमें, ज्यों बटेर खग आयो ॥ अरे हो० ॥ १ ॥ सो तू खोवत विपयनमाहीं, धरम नहीं चित लायो | अरे हो० ॥ २ ॥ भागचन्द उपदेश मान अत्र, जो श्रीगुरु फरमायो || अरे हो० ॥ ३ ॥ ४१ राग मल्हार । वरसत ज्ञान सुनीर हो, श्रीजिनमुखघनसों ॥ टेक || शीतल होत सुबुद्धिमेदिनी, मिटत भवातप-पीर ॥ चरसत० ॥ १ ॥ स्यादवाद नयदामिनि दमकै, होत निनाद गंभीर | वरसत० ॥ २ ॥ करुनानदी वसै चहुं दिशित, भरी सो दोई तीर ॥ वरसत० ॥ ३ ॥ भागचन्द अनुभवमंदिरको तजत न संत सुधीर ॥ वरसत ॥४॥ ४२. राग मल्हार । Havaran श्रीजिनवानी ॥ टेक ॥ स्यात्पद चपला चमकत जाएँ, बरसत ज्ञान सुपानी ॥ मेघघटा० ॥ १ ॥ धरममस्य जातें बहु चांदै, शिवआनंद फलदानी ॥ मेघ घटाः || २ || मोहन धूल दवी सव यातें, क्रोधानल सुबुज्ञानी ॥ मेघघटा० ॥ ३ ॥ भागचन्द बुधजन केकीकुल, लखि हरखें चितज्ञानी ॥ मेघ० ॥ ४ ॥ ४३. राग धनाश्री । प्रभू थांकों लखि ममचित हरपायो ॥ टेक ॥ सुंदर चिंता
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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