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________________ जैनपदसंग्रहपर-विवेक-प्रघटै, विघटें आपद अनेक ॥ तुम जंगभूषन दूषनवियुक्त।सब महिमायुक्त विकल्पमुक्त ॥ ४ ॥ अविरुद्ध शुद्ध चेतनखरूप परमात्म परमपावन अनूप॥शुभ-अशुभ-विभावअभाव कीन। खाभाविकपरनतिमय अछीन ॥ ५॥ अष्टादश-. दोषविमुक्त धीर । सुचतुष्टयमय राजत गभीर ।। मुनि गनधरादि सेवत महंत । नव केवललब्धिरमा धरंत ॥ ६ ॥ तुम शासन सेय अमेय जीव । शिव गये जाहिं जै हैं सदीव ॥ भवसागरमें दुख खारवारि । तारनको और न आप टारि ॥७॥ यह लखि निजदुखगेदहरनकाज । तुम ही निमित्तकारन इलाज ॥ जाने, तातैं मैं शरन आय । उचरों निजदुख जो चिर लहाय ॥ ८॥ मैं भ्रम्यो अपनपो विसरि आप । अपनाये विधिफल पुण्यपाप ॥ निजको परको करता पिछान । परमें अनिष्टता इष्ट ठान ।।९।। आकुलित भयो अज्ञान धारि । ज्यों मृग मृगतृष्णा जान वारि॥तन-परनतिमें आपौ चितार। __ .१ अपरिमाणं । २ रोग । ३ कर्मफल । ४ पानी। '
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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