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________________ १६ . जैनपदसंग्रह. वारी वे ॥ श्रीगुरु छै० ॥ २ ॥ तिनके चरनसरोरुह ध्यावै, भागचन्द् अघटारी वे ॥ श्रीगुरु० ॥ ३ ॥ ३०. राग खम्माच । सारौ दिन निरफल खोयवौ करै छै । नरभव लहिकर प्रानी विनज्ञान, सारौ दिन नि० ॥ टेक ॥ परसंपति लखि निजचितमाहीं, विरधा मूरख रोयवौ करे है ॥ सारो० ॥ १॥ कामानलतें जरत सदा ही, सुन्दर कामिनी जोयवो करै छै ॥ सारो० ॥ २ ॥ जिनमत तीर्थस्थान न ठानै, जलसों पुद्गल धोयवो करै छै ॥ सारो० ॥ ३ ॥ भागचन्द इमि धर्म विना शठ, मोहनींद में सोयवो करै छै ॥ सारो० ॥ ४ ॥ ३१. राग परज । A सम आराम विहारी, साधुजन सम आराम विहारी ॥ ॥ टेक ॥ एक कल्पतरु पुष्पन सेती, जजत भक्ति विस्तारी ॥ एक कंठविच सर्प नाखिया, क्रोध दर्पजुत भारी ॥ राखत एक वृत्ति दोउनमें, सवहीके उपगारी ॥ समआरा०॥१॥ सारंगी हरिबाल चुखावै, पुनि मराल मंजारी । व्याघ्रबालकरि सहित नन्दिनी, व्याल नकुलकी नारी ॥ तिनके चरन कमल आश्रय, अरिता सकल निवारी | सम आ० ॥२॥ अक्षय अतुल प्रमोद विधायक, ताकौ धाम अपारी । काम धरा विव गढ़ी सो चिरतें, आतमनिधि अविकारी ॥ खनत
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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