SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . द्वितीयभाग. ज्ञान तीर्थ स्नान दान, ध्यान भान हृदय आन, दया-चरन धारि करन-विषय सव विहाई ॥ ३ ॥ आलस हरि द्वादश तप, धारि शुद्ध मानस करि, खेहगेह देह जानि, तजौ नेहताई ॥४॥ अंतरंग वाह्य संग, त्यागि आत्मरंग पागि; शीलमाल अति विशाल, पहिर शोभनाई ।। ५ ॥ यह वृप-सोपान-राज, मोक्षधाम चढ़न काज । तनसुख () निज गुनसमाज, केवली वताई ॥ सुन्दर०॥६॥ प्रभाती। गेड़शकारन सुहृदय,धारन कर भाई!. . जेनते जगतारन जिन, होय विश्वराई ।। टेक ।। नर्मल श्रद्धान ठान, शंकादिक मल जघान, देवादिक विनय सरल, भावतें कराई ॥१॥ शील निरतिचार धार, मारको सदैव मार, अंतरंग पूर्ण ज्ञान, रागको विंधाई ॥२॥ स्थाशक्ति द्वादश तप, तपो शुद्ध मानस कर, भात रौद्र ध्यान त्यागि, धर्म शुक्ल ध्याई ॥३॥ जथाशक्ति वैयावृत, धार अष्टमान टार, रक्ति श्रीजिनेन्द्रकी, सदैव चित्त लाई॥४॥ प्रारज आचारजके, वंदि पाद-चारिजकों, नक्ति उपाध्यायकी, निधाय सौख्यदाई ॥५॥
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy