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________________ १०२ जैनपदसंग्रह। दुखकारी ॥ दुखकारि इष्टवियोग अशुभ, सँयोग सोग सरोगता । परसेवं ग्रीषम सीत पावस, सहै दुख अति भोगता । काहू कुतिय काहू कुबांधव, कहुँ सुता व्यभिचारिणी । किसहू विसैन-रत पुत्र दुष्ट, कलत्र कोऊ परऋणी ॥७॥ वृद्धापनके दुख जेते, लखिये सब नयननतें ते । मुख लाल बहै तन हालै, विन शक्ति न वसन सभालै ॥ न सँभाल जाके देहकी तो, कहो वृषकी का कथा ? तब ही अचानक आन जम गह, मनुज जन्म गयो वृथा ॥ काहू जनम शुभठान किंचित, लह्यो पद चहुंदेवको । अभियोग किल्विषे नाम पायो, सह्यो दुख परसेवको ॥८॥ तहँ देख महत सुरऋद्धी, झूखो विषयनकरि गृद्धी । कबहूं परिवार नसानो, शोकाकुल है विललानो ॥ विललाय अति जब म १ दूसरोंकी सेवा, नोकरी । २-४ दुष्टखी । ३ व्यसनी।. ५. लाला लार । ६ धर्मकी। ७ चार प्रकारके देवे। ८-९ आभियोग और किल्विष देवोंमें एक प्रकारके नीचे सेवकोंके समान देव होते हैं।
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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