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________________ जैनपदसंग्रह। फिरत बहुत दिन बीते, नाम अनेक धराये ॥ हम तो० ॥ टेक ॥ परपद निजपद मानि मगन है, परपरनति लपटाये । शुद्ध बुद्ध सुखकंद मनोहर, चेतनभाव न भाये ॥ हम तो०॥१॥ नर पशु देव नरक निज जान्यो, परजय-बुद्धि लहाये । अमल अखंड अतुल अविनाशी, आतमगुन नहिं गाये । हम तो० ॥२॥ यह बहु भूल भई हमरी फिर, कहा काज पछताये। दौल तजो अजहूँ विषयनको, सतगुरु वचन सुनाये ॥ हम तो० ॥ ३ ॥ १०१. . मानत क्यों नहिं रे, हे नर ! सीख सयानी। भयो अचेत मोह-मद पीके, अपनी सुधि विसरानी ॥ टेक ।। दुखी अनादि कुबोध अवृततें, फिर तिनसों रति ठानी । ज्ञानसुधा निजभाव न चाख्यो, परपरनति मति सानी । मानत० ॥१॥ भव असारता लखै न क्यो जहँ, नृप द्वै कृमि विटे-थानी । सधन निधन नृप दास १ कीट । २ विष्ठाके स्थानमें।
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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