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________________ जैनपदसंग्रह । गई अब हू नर, धर दृग-चरन सम्हारै ॥ मोहिड़ा०॥४॥ __ मेरे कब है वा दिनकी सुधरी। मेरे ॥ टेक ॥ तन विनवसन असनविन वनमें, निवसों नासादृष्टि धरी। मेरे०॥ १ ॥ पुण्यपापपरसों कब विरचों, परचों निजनिधि चिर-विसरी । तज उपाधि सजि सहजसमाधी, सहों घाम-हिम-मेघझरी । मेरे० ॥२॥ कब थिरजोग घरों ऐसो मोहि, उपल जान मृग खाज हरी । ध्यान कमान तान अनुभव-शर, छेदों किहि दिन मोह अरी ॥ मेरे०॥३॥ कब तृनकंचन एक गनों अरु, मनिजड़ितालय शैलेंदरी । दौलत सतगुरुचरनसेव जो, पुरवो आश यहै हमरी ।। मेरे०॥४॥ ‘लाल कैसे जावोगे, असरनसरन कृपाल १ धूप-शीत-वर्षा । २ पत्थर । ३ अनुभवरूपी वाण । ४ रत्नजड़ित महल । ५ पर्वतकी कंदरा।.
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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