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________________ ५२ जैनपदसंग्रह। किंचन धर्मसार सो, विविधप्रसंग वहावै ॥ऐसा योगी०॥ ४॥ पंचसमिति त्रयगुप्ति पाल व्यवहार-चरनमग धावै । निश्चय सकलकपायरहित है, शुद्धातम थिर थावै ॥ ऐसा योगी० ॥५॥ कुंकुम पंक दास रिपु तृण मणि, व्यालमाल सम भावै । आरतरौद्र कुध्यान विडार, धर्मशुकलको ध्यावै ॥ ऐसा योगी० ॥६॥ जाके सुखसमाजकी महिमा, कहत इन्द्र अकुलावै । दौल तासपद होय दास सो. अविचलऋद्धि लहावै ।। ऐसागाणा लखो जी या जिय भोरेकी वात, नित करत अहितहित घातें । लखोजी० ॥ टेक । जिन गनधर मुनि देशवृती समकिती सुखी नित जाते। सो पय ज्ञान न पान करत न, अघोत विषयविष खातें ॥ लखो० ॥१॥ दुखस्वरूप दुखफैलद जलँदसम, टिकत न छिनक विला । तजत न जगत न भजत पतित नित, रचत न फिरत --१.दो प्रकारका परिग्रह । २ तृप्त होता है । ३ दुखरूप फल देनेवाला।४वादल। . . . . . . . . . . .
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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