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________________ प्रथमभाग । जलधि हिलोरी । छोड़ि दे या बुधि भोरी; वृथा० ॥ १॥ यह जड़ है तू चेतन यौँ ही, अपनावत वरजोरी । सम्यकदर्शन ज्ञान चरण निधिः ये हैं संपत तोरी, सदा विलसौ शिवगोरी ॥ अंड़ि दे या बुधि भोरी; वृथा० ॥२॥ सुखिया भये सदीव जीव जे, यासें ममता तोरी। दौल सीख यह लीजे पीजे: ज्ञानपियूस कटोरी, मिटे परचाह कठोरी ॥ छोड़ि दे या बुधि भोरी; वृथा०॥३॥ भाव हित तेरा, सुनि हो मन मेरा, भाखू० ॥ टेक ॥ नरनरकादिक चारों गतिमें, भटक्यो तू अधिकानी । परपरनतिमें प्रीतिकरी निजपरनति नाहिं पिछानी, सहे दुख क्यों न घनेरा।। । भा०॥१॥ कुगुरुकुदेवकुपंथपंकसि, तै वहु खेद लहायो । शिवसुख देन जैन जगदीपक, सो तें कबहुं न पायो, मिट्यो न अज्ञानअँधेरा।। भा० ॥ २॥ दर्शनज्ञानचरन तेरी निधि, सो '४ मा."
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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