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________________ ४७ प्रथमभाग। बोवत हो ॥ हो तुम० ॥ २॥ स्वारथ सगे सकल जगकारन, क्यों निजपापभार ढोवत हो। नरभवसुकुल जैनवृप नौका, लह निज क्यों भवजल डोवत हो ॥ हो तुम० ॥ ३॥ पुण्यपापफल-वातव्याधिवश, छिनमें हँसत छिनक रोवत हो । संयमसलिल लेय निजउरके, कलिमल क्यों न दौल धौवत हो ॥ हो तुम० ॥ ४॥ ४८. हो तुम त्रिभुवनतारी हो जिन जी, मो भव- । जलधि क्यों न तारत हो । टेक ।। अंजन कियो निरंजन तातें, अधमउधारविरद धारत हो । हरि वराह मर्कट झट तारे, मेरी वेर ढील पारत हो। हो तुम० ॥ १॥ यों वहु अधम उधारे तुम तौः मैं कहा अधम न मुहि टारत हो । तुमको करनो परत न कछु शिव, पथ लगाय भव्यनि तारत हो । हो तुम० ॥ २॥ तुम छविनिरखत सहज टरै अध, गुणचिंतत विधि रज झारत हो । दोलन और चहै मो दीजे, जैसी आप भावना रत हो । हो तुम०.॥३॥ .. .. .
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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