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________________ (३८) (९४) राग-लोरठ। गुरुने पिलाया जी; ज्ञान पियाला ॥ गुरु०॥ टेक ॥ भइ बेखबरी परभावांकी, निजरसमें मतवाला || गुरु०॥ १॥ यों तो छाक जात नहिं छिनई, मिटि गये आन जैजाला । अदभुत आनँद मगन ध्यानमें, वुधजन हाल सझाला ॥ गुरु०॥२॥ (९५) राग-सोरठ। मति भोगन राचौ जी, भव भवमें दुख देत धना ॥ मति०॥ टेक ॥ इनके कारन गति गतिमाही, नाहक नाचौ जी । झूठे सुखके काज धरममै, पाड़ो खांचो जी ॥ मतिः॥१॥ पूरव कर्म उदय सुख आयां, राची माची जी। पाप उदय पीड़ा भोगनमैं, क्यों मन काचौ जी ॥ मति०॥२॥ सुख अनन्तके धारक तुम ही, पर क्यों जांचौ जी । वुधजन गुरुका वचन हियामें, जानौं सांचौ जी ॥ मति० ॥३॥ थांका गुन गास्यां जी जिनजी राज, थांका दरसनतें अघ नास्या ॥ थांका० ॥ टेक.॥थां सारीखा तीनलोकमैं, और न दूजा भास्या जी ॥ जिनजी० ॥१॥ अनुभव रसतें सींचि सींचिकै, भव आताप बुझास्यां जी । वुधजनको विकलप सब भाग्यौ, अनुक्रमतें शिव पास्यां जी ॥. जिनजी० ॥२॥
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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