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________________ (३६) ॥१॥ रह्यौ भरम तब गति गति डोल्यौ, जनम-मरन-दौं दाग्यो । तुमको देखि अपनपो देख्यो, सुख समतारस पाग्यौ । चंदा० ॥२॥ अव निरभय पद वेग हि पोस्यों, हरष हिये यौँ लाग्यौ । चरनन सेवा करै निरंतर, वुधजन गुन अनुराग्यौ ॥ चंदा० ॥३॥ राग-सोरठ। ज्ञानी थारी रीतिरौ अचंभौ मोनें आवै छै॥ ज्ञानी० ॥ टेक ॥ भूलि सकति निज परवश है क्यों, जनम जनम दुख पावै छै । ज्ञानी० ॥१॥ क्रोध लोभ मद माया करि करि, आपो आप फँसावै छै । फल भोगनकी वेर होय तव, भोगत क्यों पिछतावै छै ॥ज्ञानी० ॥२॥ पापकाज करि धनकौं चाहै, धर्म विपैमैं वतावै छै। बुधजन नीति अनीति बनाई, सांचौ सौ बतरावै छै॥ ज्ञानी० ॥३॥ . (९१) अव घर आये चेतनराय, सजनी खेलोंगी मैं होरी ॥ अव० ॥टेक॥ आरस सोच कानि कुल हरिकै,धरि धीरज वरजोरी ॥ सजनी० ॥१॥ बुरी कुमतिकी वात न बूझे, चितवत है मोओरी । वा गुरुजनकी वलि वलि जाऊं,दूरि करी मति भोरी ॥ सजनी०॥२॥ निज सुभाव जल हौजः भराऊं, घोरूं निजरंग रोरी । निज ल्यौं ल्याय शुद्ध पिचकारी, छिरकन निज मति दोरी ।। सजनी० ॥३॥ गाय रिझाय आप वश करिकै, जावन द्यौं नहि पोरी। बुधजन रचि मचि रहूं निरंतर,शक्ति अपूरव मोरी। सजनी ॥४॥
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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