SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 221
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . ( २२) ॥१॥धन वनिता आभूषन परिगह; त्याग करौं दुखदाय । जो अपना तू तजि न सकै पर, सेयां नरक न जाय ॥ अव० ॥२॥ विषयकाज क्यों जनम गुमावे, नरभव कव मिलि जाय । हस्ती चढ़ि जो ईधन ढोवै, बुधजन कौन वसाय ॥ अव० ॥३॥ (५२) राग-काफी कनड़ी। तोकौं सुख नहिं होगा लोभीड़ा! क्यों भूल्या रे परभावनमैं ॥ तोकौं० ॥ टेक ॥ किसी भाँति कहुँका धन आवै, डोलत है इन दावनमैं ॥ तोकौं० ॥१॥ व्याह करूं सुत जस जग गावै, लग्यौ रहै या भावनमैं ॥तोकौं० ॥२॥ दरव परिनमत अपनी गौंते, तू क्यों रहित उपायनमैं । तोकौं० ॥३॥ सुख तो है सन्तोप करनमैं, नाहीं चाह वढावनमैं ॥ तोकौं०॥४॥ कै सुख है वुधजनकी संगति, कै सुख शिवपद पावनमैं ॥ तोकौं ॥५॥ राग-कनड़ी। निरखे नाभिकुमारजी, मेरे नैन सफल भये ॥ निर० ॥ टेक ।। नये नये वर मंगल आये, पाई निज रिधि सार ॥ निरखे० ॥१॥ रूप निहारन कारन हरिने, कीनी आंख हजार । वैरागी मुनिवर हू लखिकै, ल्यावत हरष अपार ॥ निरखे० ॥२॥ भरम गयो तत्त्वारथ पायो, आवत ही दरवार । वुधजन चरन शरन गहि जाँचत, नहिं जाऊं परद्वार ॥ निरखे०॥३॥
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy