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________________ ॥ टेक ॥ ज्यौं तिरषातुर असत पीवत, चातक अंवुद धार | वानी सुनि० ॥१॥ मिथ्या तिमिर गयो ततखिन ही, संशयभरम निवार । तत्त्वारथ अपने उर दरस्यौ, जानि लियो निज सार ॥ वानी सुनि० ॥२॥ इंद नरिंद फनिंद पैदीधर, दीसत रंक लगार । ऐसा आनंद वुधजनके उर, उपज्यौ अपरंपार ॥ वानी सुनि० ॥३॥ (१२) राग-अलहिया। चन्दजिनेसुर नाथ हमारा, महासेनसुत लगत पियारा ॥ चन्द० ॥ टेक ॥ सुरपति नरपति फनिपति सेवत, मानि महा उत्तम उपगारा । मुनिजन ध्यान धरत उरमाहीं, चिदानंद पदवीका धारा ॥ चन्द०॥ १॥ चरन शरन वुधजनजे आये, तिन पाया अपना पद सारा। मंगलकारी भवदुखहारी, स्वामी अद्भुतउपमावारा ॥ चन्द० ॥२॥ (१३) राग-अलहिया विलावल-ताल धीमा तेताला। करम देत दुख जोर, हो साइँयां ।। करम० ॥ टेक ॥ कैइ परावृत पूरन की., संग न छांडत मोर, हो साइयां ॥ करम० ॥१॥ इनके वशर्ते मोहि वचावो, महिमा सुनी अति तोर, हो साइयां ।। करम० ॥२॥ वुधजनकी विनती तुमहीसौं, तुमसा प्रभु नहिं और, हो साइयां ॥ करम० ॥३॥ . . १ मेघ । २ पदवीधर ।
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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