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________________ प्रथमभाग। प्रफुलायो । ताप नस्यो बढ़ि उदधि अनंद । निरख० ॥१॥ चकवी कुमति विछुर अति विलखै, आतमसुधा सवायो । शिथिल भये सब विधिगनफंद ॥ निरख० ॥२॥ विकट भवोदधिको तट निकट्यो, अघतरुमूल नसायो । दौल लह्यो अव सुपद खछंद । निरख० ॥३॥ निरख सखि ऋपिनको ईश यह ऋपभ जिन, परखिके स्वपर परसोंज छारी । नैन नाशाग्र घरि मैन विनसायकर, मोनजुत खास दिशि-सुरभिकारी ॥ निरख० ॥ १॥ धरासम शांतियुत नरामरखत्ररनुत, विद्युतरागादिमद दुरितहारी। जास मपास भ्रमनाश पंचास्य मृग, वासकार प्रीतिकी रीति धारी ।। निरख०॥२॥ध्यानदवमाहि विधिदारु प्रजरांहि शिर, केशशुभ जिमि धुआं दिशि विधारी । फँसे जगपंक जनरंक तिने १ परपरणति । २ काम | ३ दिशाओंको सुगन्धित करनेवाली। ४ मनुष्य देय विद्याधरोंसे वन्दनीय । ५ रहित । ६ पाप । ७ घरण।८सिंह।९ध्यानरूपीअग्निमें। १० कर्मरूपी इंधन ११ विस्तारी। wamnavamm ation ३ मा."
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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