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________________ चतुर्थभाग | ८३ धानत ब्रह्मज्ञान अनुभव करि, जो चाहे कल्याना रे । ॥ भाई ० ॥ ८ ॥ १५७ | राग काफी कर मन ! निज- आतम-चिंतौन ॥ कर० ॥ टेक ॥ जिहि विनु जीव भम्यो जग-जौन ॥ कर० ॥ १ ॥ आतममगन परम जे साधि, ते ही त्यागत करम उपाधि ॥ कर० ॥ २ ॥ गहि व्रत शील करत तन शोख, ज्ञान विना नहिं पावत मोख ॥ कर० ॥ ३ ॥ जिहितैं पद अरहन्त नरेश, राम काम हरि इंद फणेश ॥ कर० ॥ ४ ॥ मनवांछित फल जिहितें होय, जिहिकी पटतर अवर न कोय ॥ कर० ॥५॥ तिहुँ लोक तिहुँकालमँझार, वरन्यो आतमअनुभव सार ॥ कर० ॥ ६ ॥ देव धरम गुरु अनुभव ज्ञान, मुकति नीव पहिली सोपांन ॥ कर० ॥ ७ ॥ सो जानें छिन व्है शिवराय, द्यानत सो गहि मन वच काय ॥ कर० ॥ ८ ॥ १५८ | राग - काफी । भाई ! जानो पुदगल न्यारा रे || भाई ० ॥ टेक ॥ क्षीर नीर जड़ चेतन जानो, धातु पखान विचारा रे || भाई ० || १ | जीव करमको एक जाननो, भाख्यो श्री गणधारा रे । इस संसार दुःखसागर में, तोहि भ्र मावनहारा रे || भाई ० ॥ २ ॥ ग्यारह अंग पढ़े सन १ पैड़ी | २ गणधर |
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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