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________________ जैनपदसंग्रह। करत जे प्रानी, अभिमानी मदपान पिये । आपद पा विघन बढ़ा, उर नहिं कछुः लेखांन किये ॥ रे जि. ॥३॥ सील समान न को हित जगमें, अहित न मैथुन सम गिनिये । धानत रतन जतनसों गहिये, भवदुख दारिद-गन दहिये ॥रे जि०॥४॥ १३७ / राग-आसावरी । . श्रीजिनधर्म सदा जयवन्त ॥ श्री० ॥ टेक ॥ तीन लोक तिहुँ कालनिमाहीं, जाको नाहीं आदि न अन्त ॥ श्री.॥१॥ सुगुन छियालिस दोप निवार, तारन तरन देव अरहंत । गुरु निरग्रंथ धरम करुनोमय. उपजें त्रेसठ पुरुष महंत ॥ श्री० ॥२॥ रतनत्रय दशलच्छन सोलह, कारन साध सरावक सन्त । छहौं दरव नव तत्त्व सरधकै, सुरग मुकतिके सुख विलसन्त ॥ श्री० ॥३॥ नरक निगोद भम्यो बहु प्रानी, जान्यो नाहिं धरमविरतंत । द्यानत भेदज्ञान सरधातें, पायो दरव अनादि अनन्त ॥ श्री०॥४॥ १३८। जब वानी खिरी महावीरकी तब, आनंद भयो अपार ॥ जय० ॥ टेक ॥ सव प्रानी मन . ऊपजी हो, धिक धिक यह संसार ॥ जव० ॥१॥ बहुतनि सम- . कित आदखो हो, श्रावक भये अनेक । घर तजक - १ हिसाब । २ कोई दूसरा । ३ दयामयी। ४ श्रावक ।
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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