SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 153
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थभाग । १०१ । राग-भैरों। ऐसो सुमरन कर मेरे भाई, पवन भै मन कितहूँ न जाई ॥ टेक ॥ परमेसुरसों साँच रही जै, लोकरंजना भय तज दीजै ॥ ऐसो० ॥१॥ जम अरु नेमै दोउ विधि धारो,आसन प्राणायाम सँभारो। प्रत्याहार धारना कीजै, ध्यान-समाधि-महारस पीजै ॥ ऐसो० ॥२॥ सो तप तपो बहुरि नहिं तपना, सो जप जपो वहुरि नहिं जपना । सो व्रत धरो वहुरि नहिं धरना, ऐसे मरो बहुरि नहिं मरना ॥ ऐसो० ॥३॥ पंच परावर्तन लखि लीजै, पांचों इन्द्रीको न पैतीजै। धानत पांचों लच्छि लहीजै, पंच परम गुरु शरन गहीजै।ऐसो०॥॥ १०२ । राग-विलावल । कहिवेको मन सूरमा, करचेकों काचा ॥ टेक ॥ विषय छुड़ावै औरपै, आपन अति मांचा ॥ कहिवे. मिश्री मिश्रीके कह, मुँह होय न मीठा । नीम कहैं मुख कटु हुआ, कहुँ सुना न दीठा ॥ कहिवे ॥२॥ कहनेवाले वहुत हैं, करनेकों कोई । कथनी लोकरिझावनी, करनी हित होई ॥ कहिवे ॥३॥ कोडि जनम कथनी कथै, करनी विनु दुखिया । कथनी चिनु करनी करै, धानत सो सुखिया ॥ कहिवे० ॥४॥ १ यम । २ नियम । ३ विश्वास कीजिये । ४ शूरबीर । ५ मग्न हुआ। ६ देखा। -
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy