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________________ १२ जैनपदसंग्रह - निरखत० ॥ टेक ॥ प्रगटी निज आनकी, पिछान ज्ञान भानकी, कला उदोत होत काम, जामैनी पलाई । निरखत० ॥ १ ॥ सास्वत आनंद स्वाद, पायो विनस्यो विषाद, आनमें अनिष्ट इष्ट, कल्पना नसाई । निरखत० ॥ २ ॥ साधी निज साधकी, समाधि मोहव्याधिकी, उपाधिको विराधिर्के, अराधना सुहाई । निरखत० ॥ ३ ॥ धन दिन छिन आज सुगुनि, चिंते जिनराज अबै, सुधरे सब काज दौल, अचल सिद्धि पाई | निरखत || ४ | ७. जबतें आनंद - जननि दृष्टि परी माई । तवतें संशय विमोह भरमता विलाई | जवतें० ॥ टेक ॥ मैं हूं चितचिह्न भिन्न परतें पर जड़ स्वरूप, दोउनकी एकता सु, जानी दुखदाई | जबतें • ॥ १ ॥ रागादिक बंधहेत, बंधन बहु विपति देत, संवर हित जान तासु, हेतु ज्ञानताई । १ रात्रि |
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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