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________________ तृतीयभाग । ०१. राग बिहाग । तहां ले चल री ! जहां जादौपति प्यारो ॥ टेक ॥ नेमि निशाकर विन यह चन्दा, तन मन दहत सकलरी | तहां० || १ || किरन किधौं नाविक-शर-तति कै. ज्यों पावककी झल री। तारे हैं कि अँगारे सजनी, रजनी रोकसदल री | तहां || २ || इह विधि राजुल राजकुमारी, विरह तपी वेलरी | भूधर धन्न शिवसुत वादर, वरसायो सॅमजल री । तहां० ॥ ३ ॥ ६०. राग ख्याल । अरे ! हां चेतो रे भाई ॥ टेक ॥ मानुप देह लही दुलही सुधरी उघरी सतसंगति पाई। अरे हां० ॥ १ ॥ जे करनी वरनी करनी नहिं, ते समझी करनी समझाई | अरे हां० ॥ २ ॥ यों शुभ थान जम्यो उर ज्ञान, विषैविषपान तृपा न बुझाई | अरे हां० ॥ ३ ॥ पारस पाय सुधा A " १ राक्षस. २ शिवदेवीके पुत्र नेमि, समतारूपी जेल, ५ टेक छोड़कर पढ़नेसे गयन्द ( तसा ) सधैया वन जाता है. ४१ 1 २ वादल - मेव. ४. राम इस पदका एक मत 8
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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