SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीयभागः। तव न करौं तेरीः फिर पूजा, यह अपराध खमों प्रभु दूजा ॥ आदि० ॥३॥ भूधर दोष किया कसावै, अरु आगेको लारे लावै । देखो सेवककी ढिठेवाई, गरुवे साहिवसों बनियाई ।। आदि०॥४॥ : ५०. राग ख्याल काफी कानड़ी। . . . _तुम सुनियोसाधो !, मनुवा मेरा ज्ञानी । सत गुरु भैंटा संसा मैटा, यह नीकै करि जानी॥टेक।। चेतनरूप अनूप हमारा, और उपाधि विरानी॥ तुम सुनियो० ॥ १ ॥ पुदगल भांडा आतम खांडा, यह हिरदै ठहरानी। छीजो भीजौ कृत्रिम काया, मैं निरभय निरंवानी॥तुम सुनियो॥२॥ मैं ही देखों में ही जानौं, मेरी होय निशानी । शवद फरस रस गंध न धारौं, ये बातें विज्ञानी। तुम सुनियो०॥३॥जो हम चीन्हां सो थिर कीन्हां, हुए सुदृढ़ सरधानी । भूधर अब कैसे उतरैगा, खड़ग चढ़ा जो पानी ॥ तुम सु० नियो०॥४॥ १ माफ कराता है. २ ढीठता. ३ बनियापन. ४ संदेह. .
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy