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________________ जैनपदसंग्रह सुकच्छकुमारी । सोई पंथ गहो पिय पाऊँ, हूजौ संजमधारी ॥ अरज० ॥२॥ तुम विन एक पलक जो प्रीतम, जाय पहर सौ भारी । कैसैं निशदिन भरौं नेमिजी!, तुम तो ममता डारी । याको ज्वाब देहु निरमोही!, तुम जीते मैं हारी।। अरज०॥३॥ देखो रैनवियोगिनि चकई, सो विलखै निशि सारी। आश वाँधि अपनो जिय राखै, प्रात मिलैं पिय प्यारी। मैं निराश निरधारिनि कैसैं, जीवों अती दुखारी ॥ अरज०॥४॥ इह विधि विरह नदीमें व्याकुल, उग्रसेनकी बारी । धनि धनि समुदविजयके नंदन, बूड़त पार उतारी । करहु दयाल दया ऐसी ही, भूधर शरन तुम्हारी ॥ अरज० ॥५॥ .. २९. राग धामल सारंग। . . . . ' हूं तो कहा करूं कित जाउं, सखी अब कासौं पीर कहूंरी!॥टेका। सुमति सती सखिय निके आगैं, पियके दुख परकासै । चिदानन्दवल्लभकी वनिता, विरह वचन मुख. भासै ॥ हूं तो० ॥१॥ कंत विना कितने दिन बीते, कौंलौं
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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