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________________ तृतीयभाग । इस अवसरमें यह चपलाई, कौन समझ उर. आनी ॥ सुन० ॥२॥ चंदन काठ-कनकके भाजन, भरि गंगाका पानी । तिल खलि राँधत मंदमती जो, तुझ क्या रीस विरानी । सुन० ॥३॥ भूधर जो कथनी सो करनी, यह बुधि । है सुखदानी । ज्यों मशालची आप न देखे, सो मति करै कहानी । सुनि० ॥४॥ . ९.राग सोरठ। सुनि ठगनी माया, तैं सब जग ठग खाया। टेक ॥ टुक विश्वास किया जिन तेरा, सो मूरख पिछताया ॥ सुनि० ॥१॥आपा तनक दिखाय वीज ज्यों, मूढमती ललचाया । करि मद अंध धर्म हर लीनौं,अंत नरक पहुँचाया।सुनि०॥२॥ केते कथं किये तैं कुलटा, तो भी मन न अघाया। किसहीसौं नहिं प्रीति निवाही, वह तजि औरलुभाया। सुनि०॥३॥ भूधर छलत फिरै यह सवकों, भौंदू करि जग पाया।जो इस ठगनीकों ठग वैठे, मैं तिसको सिर नाया।सुनि०॥४॥ १ विजलीके समान.
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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