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________________ ५९ हजूरी पद-संग्रह सुख पावत, परत अभक्त अनंत दुखन मैं । जैसो मुख देखो तैसा है, भासत जिम निर्मल दरपन"मैं ॥ वीतराग० ॥ ४ ॥ तुम कषाय विन परम शांत हो, तदपि दक्ष कर्मारिहतनमें | जैसे अति शीतल तुषार पुनि, जार देत द्रुमभारें गहन में । ॥ वीतराग॥५॥ अव तुम रूप जथारथ पायो, अव इच्छा नहिं अन कुमतनमैं । भागचन्द अमिरत रस पीकर, फिर को चाहै विप निज मनमैं || वीतराग० ॥ ६ ॥ ४३ । राग जंगला । 1 तुम गुनमनिनिधि हो अरहंत । तुम० ||१|| ॥ टेक ॥ पार न पावत तुमरो गनपति, चार ज्ञानघर संत ॥ तुम गुन० ॥ १ ॥ ज्ञानकोष सब दोषरहित तुम, अलख अमूर्ति अचिंत ॥ तुम गुंन० ॥ २ ॥ हरिगन अरचत तुमपद-वारिज, परमेष्ठी भगवंत ॥ तुम गुन० ॥ ३ ॥ भागचंद के १ चतुर । २ कर्मशत्रुयोंके मारनेमें । ३ हिम - बरफ | ४ वृक्षोंका समूह | ५ वनमें |
SR No.010373
Book TitleJainpad Sagar 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages213
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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